Wednesday, 29 December 2021

साल 2021 के नाम अंतिम खत

प्रिय 2021 ,
     तुझे हमारा आखरी सलाम। हमारा सफर यहीं तक था ।आज हमारी यह दोस्ती सदा सदा के लिए खत्म हो जाएगी। जब तू आया था तो हमने बहुत अपेक्षाएं की थी तुमसे। सोचा था कुछ नई उपलब्धियां हमारे हाथ लगेगी, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। तूने एक ही झटके में सारी उपलब्धियों को धूमिल कर दिया। तेरी इस छोटी सी जिंदगी( 1 जनवरी से 31 दिसंबर) में तूने हमें बहुत तड़पाया। कहीं अपनों को तूने एक दूसरे से जुदा कर दिया । सबके दिल में अपने साथी कोरोना का भय बिठा दिया। साथी भी लाया तो कोरोना जैसा लाया । यार, कम से कम दोस्त तो ढंग का लाना था। 
किस पर तूने अपना कहर नहीं बरपाया। किसानों को तूने पानी के लिए तरसा दिया था और फिर जब बरसा तो आज भी तेरे ही जीवन काल में किसान सड़कों पर खड़े हैं।
विद्यार्थियों को देख ले। कितनी अपेक्षा की थी तुमसे । सोचे थे कि कुछ नई उपलब्धियां हांसिल करेंगे ,परंतु उनके स्कूल कॉलेज भी बंद करवा दिया तूने । पढ़ाई जिसकी वह पूजा करते हैं तूने तो उससे इन की दूरियां बढ़ा दी।
बॉलीवुड के नामी सितारे छीन लिए। किसानों के लिए आज भी सर दर्द बना हुआ है। दो जून की रोटी कमाने वाले मजदूरों को तूने एक एक रोटी के टुकड़े के लिए तरसा दिया । व्यापारियों का धंधा ठप कर दिया । क्या नहीं किया तूने ? जो लोग जैसे तैसे नौकरी करके अपना जीवन यापन कर रहे थे। ऐसे कई लोगों की तू नौकरियां खा गया। दर्द ही दर्द दिया है तूने। खिलाड़ियों के खेल छीन लिए । खेल के मैदान ,बड़ी बड़ी होटल ,बड़े बड़े मॉल, सिनेमा हॉल, रेल ,बस ,हवाई यात्रा सब बंद करवा दी।

जो मित्र एक दूसरे से मिले बिना एक पल नहीं रह सकते थे उनको तूने महीनों एक दूसरे से दूर कर दिया। कई प्रेमी प्रेमिका तेरे ही कारण विरह की आग मे तपते रहे।

परंतु इतना याद रख। तेरी इन सब करतूतों के बाद भी मानव जाति ने तुझ से हार नहीं मानी। कुछ नया करके भी दिखलाया। तेरे इस कोप से कोई भी नहीं डरा । देख ही लिया होगा तूने।
अचानक हमला जरूर किया था हमें संभलने का मौका तक नहीं दिया था । कम से कम एक बार बता तो देता कि मेरा एक दोस्त आ रहा है जो तुम्हें जान से मारने आएगा तो हम थोड़ा संभल जाते।
पर फिर भी हम समले।
मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान पर इसी तरह हमला किया था जैसे तूने हम पर किया। पर हौसला देख हमारा डरे नहीं हम तुझसे। हमने तालियां और थालिया बजाई। हमने दिए जलाए।
स्वच्छता के प्रति हम थोड़े से लापरवाह हो गए थे। परंतु अब हम लापरवाह नहीं रहे। हमने स्वच्छता को महत्व देना शुरू कर दिया।
अरे जा, तेरे जैसे कायरो से तो हम बात भी नहीं करते इसलिए हमने अपने मुंह को हमेशा ढकना शुरु कर दिया मास्क लगाकर। देखते हैं तू हमारा क्या बिगाड़ लेगा। मानव जाति के लिए खतरा बनने आया था तू?  तेरी तरह न जाने पहले कितने आए हैं और चले गए । हर बार हम उठे हैं। हर बार हमने संघर्ष किया है और हर विरोधी को हमने हराया है। हम तुम्हें भी हराएंगे ।
लॉकडाउन जिसके लिए किसी ने सोचा नहीं था। वह भी तेरे ही जीवन काल में लगा, परंतु एक अच्छा सबक उस लॉक डाउन से हमें मिला। हर चीज ऑनलाइन मंगाने लगे थे । हम भूल गए थे हमारे पड़ोस में भी कोई दुकान चलती है और उस दुकान से किसी का पेट भरता है पर तूने हमें वापस उसी जगह जाना सिखा दिया । रामू की दुकान से पिताजी अक्सर हमारे लिए मिठाई ले आते थे पर हम वहां जाना भूल गए थे । तेरे आने से हमने भी वहीं से सामान खरीदना शुरू कर दिया। तूने हमें परास्त करना चाहा तो हमने लोकल फॉर वोकल का नारा दिया। और एक दूसरे का साथ देने की ठान ली। तू हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाया। तेरा साथी कोरोना भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। पहले केवल सैनिक ही रक्षक समझे जाते थे परंतु अब डॉक्टर नर्स है और कहीं समाजसेवी लोगों ने डटकर मुकाबला किया और तुम्हें बता दिया कि वक्त पड़ने पर पूरी मानव जाति एक होकर किसी भी संकट का सामना कर सकती है। जो लोग हमारी ढाल बने हैं हम दिल से इनका सम्मान करते हैं। इन्होंने भी हमें बता दिया हर व्यक्ति एक सैनिक की तरह होता है जो किसी न किसी कार्य में दक्ष होता है और जरूरत पड़ने पर उसे मानव जाति के लिए कार्य करने चाहिए। दिन रात एक कर दिया डॉक्टर और नर्सों ने। समाजसेवियों ने हर कुछ व्यक्ति तक खाना पहुंचाया जिसे तू भूखे मार देना चाहता था। कितने संकट दिया तूने। प्रवासी घर छोड़ चुके थे । कोई रेल की पटरी पर कोई सड़क के किनारे रात गुजार रहा था । वह भी मार्च की धूप में । नंगे पैर  नंगे बदन फिर भी हम लड़े। हमने तुम्हारा डटकर सामना किया। आज भी हम हारे नहीं है। विजय आखिरकार हमारी हुई है। कई भामाशाह सामने आए जिन्होंने आशा की एक किरण बनकर लोगों के जीवन बचाने का कार्य किया। प्रवासियों को वापस घर मिला । 

हम भी थोड़े आधुनिक हो गए थे। गांव से शहरों की तरफ पलायन कर चुके थे। पर जब हम पर खतरा आया तो हम शहरों से वापस गांव आए। अपनों के साथ रहे। अपनापन हमें फिर से देखने को मिला। जिस अपनेपन को हम कोसो दूर छोड़ चुके थे जिस अपनेपन से हम दूर जा चुके थे और धीरे-धीरे एकांत एकाकी जीवन पसंद करने लगे थे। उसे छोड़कर हमने फिर अपनों के साथ जीना शुरु किया।

2021 तू जैसा भी था हमारे जीवन में आया था। इसलिए हम तुझसे नफरत भी नहीं कर सकते हैं परंतु अब तेरे साथ भी हम नहीं रहना चाहते। 

अब हम 2022 का तहे दिल से स्वागत करेंगे और उम्मीद करेंगे कि यह दोस्त 2021 की तरह ना निकले। यह हमें नई ऊंचाइयों पर लेकर जाएं ।यह भारत को नई बुलंदियों छूने का अवसर दें । यह सभी मानव जाति एवं जीव जंतुओं में प्रेम और समर्पण की भावना भर दे।
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया को सार्थक करें।
सभी को अपने-अपने लक्ष्य प्राप्त हो।
कोई इस दुनिया में दुखी ना हो ।
कोई निरोगी ना हो ।
इसी उम्मीद के साथ और नई उमंग के साथ हम 2022 का स्वागत करेंगे और अंत में तुमसे यही कहते हैं-----
तू अपने साथी कोरोना को भी वापस लेकर जाना।

और फिर कभी ना ,फिर कभी ना आना।।


Tuesday, 27 July 2021

सलाम कलाम

हमारे देश में एक ऐसी शख्सियत का जन्म हुआ था जिसने राजनीति और विज्ञान के क्षेत्र में हमें बहुत कुछ दिया है और उनके दिए गए आविष्कारों से आज भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व उन पर गर्व करता है। उस शख्सियत का नाम है ए.पी.जे. अब्दुल कलाम। विज्ञान के क्षेत्र में हमें बहुत कुछ देने वाले इस शख्सियत का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को रामेश्वरम, तमिलनाडु में हुआ। अब्दुल कलाम मुस्लिम धर्म से थे। उनके पिता का नाम जैनुलअबिदीन था जो नाव चलाते थे और इनकी माता का नाम अशिअम्मा था।

अब्दुल कलाम का बचपन बहुत ही संघर्षों में गुजरा। क्योंकि ये गरीब परिवार से थे और ये बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ काम भी करते थे। जिस प्रकार अखबार बांटने के लिए किसी को काम पर रखा जाता है, उसी तरह अब्दुल कलाम भी बचपन में अखबार बांटने जाया करते थे ताकि वो अपने परिवार का खर्च चला सके। उन्होंने रामेश्वरम, रामनाथपुरम के स्च्वात्र्ज मैट्रिकुलेशन स्कूल से अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। अब्दुल कलाम में बचपन से ही कुछ नया सीखने की जिज्ञासा दृढ़ थी। वो पढ़ाई भी करते तो पूरी लग्न और जिज्ञासा से किया करते थे चाहेे उनके पास कैसा भी समय हो।

अपनी शिक्षा को पूर्ण करने के बाद अब्दुल कलाम ने एक वैज्ञानिक के रूप में डीआरडीओ यानि रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन में काम किया। अब्दुल कलाम का सपना था कि वो भारतीय वायु सेना में एक पायलट बने और देश के लिए कुछ करें। इसके लिए वो काफी प्रयास करते रहे। लेकिन वो इसमें नहीं जा पाए परंतु उन्होंने अपने इसी सपने को सकारात्मक माध्यम से एक नई दिशा दी और उन्होंने शुरूआत में भारतीय सेना के लिए एक छोटे हेलिकाप्टर का मोडल तैयार किया।अपनी स्कूली शिक्षा के पूर्ण होने के बाद जैसा कि अब्दुल कलाम की रूचि विज्ञान में थी तो उन्हें भौतिक विज्ञान में स्नातक करनी थी। उसके लिए उन्होेंने तिरूचिरापल्ली के सेंट जोसेफ काॅलेज में दाखिला लिया और 1954 में उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी कर ली। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब्दुल कलाम आगे की पढ़ाई पूरी करना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने 1955 में मद्रास की ओर प्रस्थान किया। वहां जाने के बाद उन्होंने अंतरिक्ष विज्ञान की शिक्षा ग्रहण की। क्योंकि उनकी रूचि भौतिक विज्ञान में ज्यादा थी। उनके शिक्षा का ये दौर करीब 1958 से 1960 तक चलता रहा।

डीआरडीओ में काम करने के बाद अब्दुल कलाम की करियर यात्रा इसरो की ओर बढ़ी। सन् 1969 में उनका कदम इसरो यानि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन पर पड़ा। जहां पर वो कई परियोजनाओं के निदेशक के रूप में काम करते रहे और गर्व की बात ये है कि इसी दौरान 1980 में इन्होंने भारत के पहले उपग्रह ‘‘पृथ्वी‘‘ या एसएलवी3 कोपृथ्वी के निकट सफलतापूर्वक स्थापित किया। इन्होंने भारत के लिए ये काम इतना बड़ा कर दिया था कि इनके इस काम की वजह से हमारा देश अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बना।

अब्दुल कलाम निरंतर विज्ञान के लिए नया-नया काम करते रहे जिसमें उन्होंने भारत के पहले परमाणु परीक्षण को भी साकार कराने में में अपना सहयोग दिया। इतना ही नहीं इन्होंने नासा यानि नेशनल ऐरोनोटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन की यात्रा भी की। अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत को इतनी तरक्की दिलाने से भारत सरकार द्वारा 1981 में इन्हें पद्म भूषण से नवाजा गया। सन् 1982 में उन्होंने गाइडेड मिसाइल पर कार्य किया। अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतनी लग्न और निष्ठा को देखते हुए भारत सरकार ने 1990 में फिर इन्हें पद्म विभूषण से नवाजा जो कि बहुत ही गर्व की बात है। 
अब्दुल कलाम आजाद को रक्षा मंत्री के विज्ञान सलाहाकार के रूप में भी चुना गया। जिस पर वो 1992 से 1999 तक रहे। इतना ही नहीं इस कार्यकाल के मध्य में यानि 1997 में उन्हें भारत रत्न से नवाजा गया। इसी तरह योगदान देते हुए उन्होंने आगे भारत के दूसरे परमाणु परीक्षण को सफल बनाया। सन् 2002 तक भारत को अब्दुल कलाम इस हद तक ले जा चुके थे जहां तक भारत को सोचना भी मुश्किल था और इसी योगदान की सफलता का फल उन्हें भारत का राष्ट्रपति बनके मिला। 2002 में उन्हें भारत का राष्ट्रपति चुना गया था और ये 2007 तक इस कार्यकाल में रहे। उनको उनके काम की वजह से मिसाइल मेन जैसे कई नामों से जाना जाता है। इसके बाद उन्होंने शिक्षा संस्थाओं के कई पदों पर कार्य किया। 27 जुलाई 2015 को वो शिलोंग के भारतीय प्रबंधन संस्थान में लेक्चर देने गए थे। इसी दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और अब्दुल कलाम आजाद को इस दुनिया से विदा होना पड़ा। भले ही आज अब्दुल कलाम इस दुनिया में नहीं लेकिन उन्होंने हमारे भारत को इतना कुछ दिया है कि वो हमारे लिए आज भी जिंदा है।

Sunday, 27 June 2021

भूख

 कोरोना की दूसरी लहर के दौरान देश एक भीषण संकट से गुजरा है। दूसरी लहर के कारण लाखों परिवार इस गहरे संकट से प्रभावित हो चुके हैं|हमें ऑक्सीजन,दवाइयों और वैक्सीन की राजनीति के मुद्दे से परे होकर देश के लाखों लोगों के बीच फैली भूखमरी की समस्या पर भी ध्यान देना चाहिए। आइए इस अनजान आपदा से शुरू करते है, और 2020 के मार्च और अप्रैल से इसके अंतर को देखते है।। पिछले साल, भोजन और राशन की कमी बड़ी दिखाई देने वाली समस्या थी। लेकिन यह केवल प्रवासियों तक ही सीमित थी, जिन्हें हम देख सकते थे और जब तक वे बड़े शहरों में थे, हम उन्हें भोजन प्रदान करने में सक्षम थे। जैसे ही वे 100 किमी दूर चले गए, और यहां तक कि गांवों में भी, वे हमारे पहुंच से बाहर हो गए थे। जैसे ही वे अदृश्य हो गए, उनकी जरूरतों को बड़े पैमाने पर सरकारों, एजेंसियों और मीडिया द्वारा अनदेखा कर दिया गया। महामारी की पहली लहर इस बात का सबूत थी कि  देश की आबादी में आधे से अधिक सम्मिलित होने के बावजूद भी भारतीय गांव  विकास  के एजेंडा का हिस्सा नहीं हैं, और यहां तक कि संकट के समय में भी वे बड़े शहरों की जरूरतों के बाद, ही याद आते हैं। किसानों को केवल भोजन देने के वाले के तौर पर देखा जाता है और कठिनाई मे रहने वाले किसानो को कारखाने, इमारतों और घरों में प्रवासी श्रमिकों या श्रम के रूप में देखा जाता है।

दूसरी लहर स्वास्थ्य संकट बनकर उभरी है। इसलिए अभी, बातचीत ऑक्सीजन सिलेंडरों, सांद्रता, वेंटिलेटर, आईसीयू बेड, ड्रग्स आदि के बारे में हैं।  इन आधारभूत सुविधाओं की कमी के चलते, हम इस लहर के दौरान एक दूसरे पर निर्भर हो गए हैं। हम हमारे प्रियजनों को बचाने के लिए व्हाट्सएप पर दोस्तों और परिवारों से संपर्क करते हैं। हालांकि,इन सब के बीच एक अहम बात जो हम  भूल रहे हैं कि  हम एक साल से अधिक समय से इस पीडा से जूझ रहे है  और तनाव में रहे है, सभी परिवारों पहले से ही कठिनाई मे है जिनके पास आजीविका की कमी है , कम आय है , जिन्हे पर्याप्त भोजन तक  नहीं  मिल रहा  है। भूख हमारी आबादी के बड़े हिस्से के लिए सतत आपदा हैं| महाराष्ट्र, दिल्ली और मध्य प्रदेश जैसे शहरों, कस्बों और पूरे राज्य कुछ समय के लिए लॉकडाउन में रहे| पिछले साल, जैसे ही राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा की गई, लोगों ने भोजन वितरित करना शुरू कर दिया था|इस साल, उस मोर्चे पर लगभग कोई बात नहीं  हो रही हैं, सब कुछ केवलऑक्सीजन और बिस्तरों के बारे में ही सिमट गई हैं।

शहरों में सबसे कम आय वाले परिवारों के लिए, उनका ऑक्सीजन दाल चावल है। उनके पास भोजन पहुंचने के लिए कोई पर्याप्त साधन नहीं है| यह स्थिति गांवों में ही नहीं बल्कि शहरों में भी हैं,क्योंकि भूख के मुद्दे को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया हैं| पहले लॉकडाउन के बाद गांवों से वापस आने वाले अधिकांश प्रवासी श्रमिकों को उचित काम और ठीक से भोजन  नहीं मिलने पर भी वे वापस नहीं लौटे । लेकिन पिछले साल की तरह इस बार उनके लिए भोजन की कोई व्यवस्था नहीं की गई हैं| और बहुत लोगो ने कोई बचत भी नहीं कर रखी  है जिससे वे इस समय को गुजार सके।|चीजें जल्द ही बेहतर होने की संभावना नहीं है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि दूसरी लहर स्वास्थ्य की दृष्टि से खतरनाक हैं पर  इसका मतलब यह नहीं है कि भूख कोई मुद्दा नहीं है। दूसरी लहर लोगों को वेंटिलेटर और ऑक्सीजन के माध्यम से जीवित रखने के बारे में है, लेकिन अधिकांश के लिए, पेरासिटामोल और अन्य  बुनियादी दवाएं ही  उनके लिए जीवन रक्षक है। आज लाखों लोगों के लिए, साधारण दाल चावल मिलना ऑक्सीजन मिलने से कम नहीं है।


शायद हंसी भी भूख से हार गई 


Wednesday, 16 June 2021

मानव विलुप्ति

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
प्रकृति को धरा का आलिंगन करने के पश्चात्‌  प्रेम की अनुभूति हुई, यह अनुभूति इतनी प्रबल और प्रगाढ़ थी कि प्रकृति और धरा फिर कभी अलग न हो पाये, अपने चारों ओर देखें तो हम आज भी उस आलिंगन को देख सकते हैं...
भावनाओं में बहने वाली प्रकृति को धरा के रूप में एक स्थिर चित्त साथी मिल गया जिसने न केवल प्रकृति की भावनाओं को स्थिरता प्रदान की अपितु उन्हें स्वयं से बाँध लिया... आज भी इस प्रेम का प्रकर्ष दोनों को एक-दूसरे से बांधे हुये है।
प्रकृति और धरा दो पूर्णतः भिन्न स्वभाव के होते हुये भी, इसप्रकार हुये की दोनों में किसी एक के न होने पर दूसरा स्वयं नष्ट हो जाएगा। 
वास्तव में प्रेम की यही परिभाषा है।प्रकृति और धरा दो पूर्णतः भिन्न स्वभाव के होते हुये भी, इसप्रकार एक हुये की दोनों में किसी एक के न होने पर दूसरा स्वयं नष्ट हो जाएगा। 
यही वह अनुभव था, जिससे प्रकृति को मानव सृजन प्रेरणा हुई। ईश्वर ने प्रकृति और धरा के प्रेम को रूप देने का कार्य किया....
आज मनुष्य सारी परिभाषायें बदल रहा है, जीवन के लिये अवश्यक क्षुधा ने आज लोभ का रूप ले लिया है, और लोभ में मानव इस प्रकार लिप्त है कि उसे ना धरा की पुकार सुनायी दे रही है ना ही प्रकृति का विलाप।
स्वयं को सर्व शक्तिमान समझने वाला मानव, दोहन को प्रगति समझने वाला मानव, धन को एक मात्र साधन समझने वाला मानव, आज प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है, ऐसा भ्रम कर बैठा है। आज जनमानस में व्याप्त त्राहि और विनाश या तो मानव स्वयं देखना नहीं चाहता या मानव दृष्टिहीन होने के साथ भावहीन भी हो चुका है। 
हमने बचपन में पढ़ा था, "पृथ्वी एक अनोखा ग्रह है, ब्रम्हाण्ड में जीवन मात्र पृथ्वी पर ही सम्भव है", क्या पता था कि हम इसे नष्ट कर, दूसरे ग्रह पर जीवन खोजने की मृगतृष्णा जागृत कर लेंगे... आज मानव लगभग आधी प्राकृतिक सम्पदा नष्ट कर चुका है, यदि इस बिन्दु से वह इसी दिशा में अग्रसर होता है, तो विश्वास कीजिये पश्चात वापसी का कोई मार्ग शेष नहीं रहेगा।
यदि मानव ने भीतर का अंधकार अब नहीं मिटाया, तो प्रकृति की वेदना और ईश्वर का क्रोध मानव को नष्ट कर देगा, यह एक माँ के लिये अपने शिशुओं को खोने जैसा ही होगा, परन्तु ईश्वर को यह कठोर निर्णय लेना होगा और वह अवश्य लेगा। या तो संपूर्ण मानव-जाति नष्ट कर देगा या मुट्ठी भर बचेंगे, पुनः शुरुआत करने के लिये, यदि हममें से कुछ दया के पात्र हुये तो।
आप बताइये आप क्या खोना चाहेंगे, 
"पृथ्वी एक अनोखा ग्रह" अथवा "मानव-जाति का विकास"?
निर्णय आपका है।
धरा को हम नष्ट कर सकें, ये हमारी क्षमताओं से परे है।
परन्तु, हम अवश्य नष्ट हो जायेंगे।
विचार कीजिये। कार्य कीजिये। मानव बने रहिये।

Monday, 24 May 2021

AatmaNirbhar Bharat Abhiyan

Someone has rightly said that, “Self- reliance is the only road to true freedom and being one’s own person is its ultimate reward.” This statement indicates that the freedom, which is achieved by the blood, sweat and tears, can only be safeguard by self reliance. And former Prime Minister of India Shri Lal Bahadur Shastri once said, “The preservation of freedom is not the task of soldiers alone. The whole nation has to be strong.” Therefore it’s the moral duty of every Indian citizen to go self reliant. Our government, our people, our scientists and we all have the dream to become superpower of the world one day, which is only possible by becoming self reliant and preserving our freedom which was achieved by our freedom fighters with great sacrifices.

The statistics themselves state that India always wanted to be a self-reliant country, without any external support. Our defence sector was very fragile, when we were a newly born independent country. India had a political leadership which thought of only peace and harmony. This is ultimately proved by the statement given by Mr. Jawaharlal which stated that no soldiers are required on the borders. India had very little national industry after independence and most military weapons & equipment were of British make. It was after suffering a setback in the Sino- Indian War (1962), that India took a resolve to develop an effective production base. The early 90’s witnessed the economic reforms in India and rapid decline of support from USSR. It was after this phase that our political leadership started paying attention to the defence sector resulting in the successful tests of Agni in 1987, Prithvi in 1988 and BrahMos in 2001. The nuclear test at Pokhran on 11 May 1988 was the result of political will of the NDA Government. India is also preserving freedom by making fighter tank series of ARJUN MBT 370+ and fighter jets like HAL TEJAS, HAL CHEETAH, HAL KIRAN etc. It will not be an exaggeration if it’s said that most development is done in the Defence sector.

In the health sector India has turned this global pandemic into an opportunity. The production of ventilators and masks has increased by 29.77 and 56.23 per cent respectively. The government of India has opened many hospitals to provide cheap treatment to the citizens and started many schemes as Aayushmaan Bharat and had developments since 1975.

In space programme, our ISRO has achieved many milestones. It’s world’s fourth agency to reach Mars. It has done more than 110 successful experiments including PSLV- C37 in February 2017, which is an unbroken world record.
In IT as well we have evolved Panini Backus Form, J- SHARP and KOJO with other computer programming languages.

We have developed a lot since 1975 and still developing. Our milestones are motivating us in every field. If we keep going with this pace, then surely we’ll be the superpower a day.

Sunday, 9 May 2021

भारतीय संस्कृति में मातृत्व दिवस

पाश्चात्य संस्कृति को मानने वाले यूरोप तथा उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के देश़ों में मई महीने के दूसरे रविवार को ‘मातृ दिवस’ अर्थात ‘मदर्स डे’ मनाया जाता है ।  वहाँ की देखादेखी अपने देश में भी मदर्स डे मनाया जाने लगा है ।

चूँकि पाश्चात्य संस्कृति में परिवार की तुलना में व्यक्ति गत स्वतंत्रता तथा आर्थिक निर्भरता को अधिक महत्व दिया जाता है । इसी कारण वहाँ के अधिकतर लोगों के पास, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष हो, कर्मचारी हो, श्रमिक हो या अधिकारी हो, गाँव का रहने वाला हो या फिर महानगरों का, अपने परिवार के लिए समय का नितांत अभाव होता है । 

वृद्ध माता-पिता की देखभाल का वक्त न बेटों के पास होता है और न ही बहुओं के पास । अत: सामान्य तौर पर वृद्ध जन वृद्धाश्रमों में रहने के लिए विवश होते हैं । बच्चों की देखरेख के लिए आया, झूला घर,बच्चा घर आवासीय विद्यालयों आदि की व्यवस्थायें होती है ।

चूँकि मानव जीवन में धन तथा भोग विलास के संसाधनों की जितनी आवश्यकता होती है, उतनी ही आवश्यकता परिवार की भी होती है । इसी कारण परिवार नामक संस्था को जीवित रखने के लिए पाश्चात्य देश़ों में मातृ दिवस, पितृदिवस, डाटर्स डे आदि मनाने की परंपरा है। मदर्स डे मई माह में दूसरे रविवार को मनाया जाता है तथा यूरोपियन और अमेरिकन देश़ों में रविवार को साप्ताहिक छुट्टी का दिन होता है । 

इस कारण वहाँ मदर्स डे की बड़ी धूम होती है । अपनी माता  के लिए उपहार तथा ‘हैप्पी मदर्स डे’ वाले कार्ड खरीदे जाते हैं । कोशिश यह भी होती है कि पूरा परिवार एक साथ किसी रेस्तराँ या फिर घर पर लंच या डिनर करे । यह स्मृतियों को ताजा करने का भी दिन होता है । 

दादा-दादी और नाना नानी अपने पोते-पोतियों, नवासे-नवासियों को उनके माता-पिता के बचपन की महत्वपूर्ण घटनाओं के संबंध में जानकारी देते हैं । शाम होते-होते वृदध माता-पिता पुनः वृदाश्रम में होते हैं तथा उन्हें एक बार फिर से  मातृ-पितृ दिवस की प्रतीक्षा होती है ।

भारतीय संस्कृति इससे उलट है । महानगरों में जहाँ छोटे-छोटे एक या दो कमरों में पूरा परिवार जैसे-तैसे रहता है । वहाँ विवशता में (अपवादों को छोडकर) वृद्धजनों को वृद्धाश्रमों में रहना पड़ता है । छोटे शहरों विशेषकर गाँवों में वृद्ध माता-पिता की भूमिका आज भी नहीं बदली है, धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में बड़े बूढ़ों की ही चलती है । अलग चूल्हा-चौका होने पर भी बहुयें बारी-बारी ,से सास -ससुर की सेवा करती हैं ।

भारत में मदर्स डे  पारंपरिक तौर तरीकों से मनाया जाता है, केक काटने जैसे आधुनिक रिवाज के अलावा माता-पिता को तिलक लगा कर उनकी आरती उतारना और चरणवन्दना कर आशीर्वाद लेना यह मदर्स डे सेलीब्रेट करने का ठेठ देशी तरीका है । भेंट स्वरुप माँ को साड़ी तथा पिताजी को धोती -कुर्ता (पैंट-शर्ट भी) दिया जाता है । कहीं-कहीं गुलदस्ता तथा माता-पिता के पसंद की मिठाईयाँ और पकवान (चाकलेट) भी भेंट किया जाता है ।

पूरी सृष्टि में सिर्फ मानव शिशु को अधिकतम तथा दीर्घकाल तक देखरेख की आवश्यकता होती है । मानव जीवन का ऐसा कोई कालखंड नहीं है जिसमें उसे वरिष्ठ जनों के देखरेख तथा सुरक्षा की आवश्यकता न हो ! माता अपने पुत्र/पुत्री देखभाल तथा चिंता जितने शिद्दत से करती है, उतना कोई दूसरा नहीं कर सकता । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में माता का स्थान सर्वोपरि है ।

चूँकि गाय अपनी दूध से मानव देह को पुष्ट करती है इसलिए गाय ‘गौमाता’है । धरती सदा धारण करती है इसलिए धरती भी माता है । देश की भूमि सारी सुख सुविधाएं, सुरक्षा, नाम व पहचान देती है, इसलिए यह हमारी ‘भारत माता’ है । अन्न, शाक,फल से देह पुष्ट होता है तथा कार्यकारी ऊर्जा प्राप्त होती है, इसलिए अन्न आदि अन्नपूर्णा माता है । संतान की रक्षा के लिए माता उग्र रुप धारण करती है तथा काल से भी भिड़ जाती है, इसलिए संतान के प्राणों तथा संस्कृति की रक्षा करने वाली शिवा अर्थात दुर्गा माता है । 
भारतीय संस्कृति में माँ का विस्तार अनंत है । यह विषय व्याख्या तथा कल्पना से परे है ।
अस्तु—
‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेणि संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम: ।

इंटरनेशनल मदर्स डे अर्थात अंतरराष्ट्रीय मातृदिवस के उपलक्ष्य में समस्त मातृशक्तियों को बहुत-बहुत बधाई और अनंत शुभकामनाएं !!

Monday, 12 April 2021

सरयू नदी

            " अवधपुरी मम  पुरी   सुहावनी 

              उत्तर  दिश  बह  सरयू  पावनि " । 

तुलसीदास द्वारा लिखित इस चौपाई में सरयू नदी को अयोध्या की पहचान का प्रमुख प्रतीक बताया गया है । भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएं तट पर स्थित है । सरयू नदी की कुल लंबाई करीब 160 किमीo है। हिन्दू धर्म में भगवान श्री राम के जन्मस्थान अयोध्या से होकर बहने के कारण इस नदी का विशेष महत्व है । सरयू नदी का वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है
ऋग्वेद में देवराज इन्द्र द्वारा दो आर्यों के वध की कथा जिस नदी के तट पर घटी थी वह नदी और कोई नदी नहीं बल्कि सरयू नदी ही थी। रामचरितमानस जो तुलसीदास द्वारा रचित है उसमें तुलसीदास जी ने सरयू नदी का गुणगान भी किया है
रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने इसी नदी के जल में अपनी प्रजा , मित्रगणों और भाईयों समेत समाधी ली थी । मत्स्य पुराण के अध्याय 121 और वाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग में सरयू नदी का वर्णन किया गया है कि सरयू नदी भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रकट हुई है । इसे जानने के लिए हमें पौराणिक कथा का सहारा लेना पड़ेगा। 
कथा इस प्रकार है - 
एक बार की बात है शंकासुर नामक दैत्य ने वेद को चुरा कर समुद्र में डाल दिया और स्वयं भी समुद्र में ही जाकर छिप गया । दैत्य का पीछा करते हुए भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर लिया और समुद्र के तल में चले गए । शंकासुर दैत्य और भगवान विष्णु के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमें शंकासुर दैत्य का वध भगवान विष्णु के हाथों हुआ। समुद्र से वेद निकाल कर भगवान विष्णु ने वेद को ब्रह्मा जी को सौंप दिया और अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए । भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी के लिए यह ब बहुत ही हर्ष का समय था। उसी समय भगवान विष्णु की आंखों से जो अश्रु निकले उसे ब्रह्मा जी ने मानसरोवर में डाल कर सुरक्षित कर लिया। महाराज वैवस्वत ने भगवान विष्णु के अश्रु जो मानसरोवर में सुरक्षित थे उसे अपने बाण के प्रहार से बाहर निकाला । यही अश्रुओं की जलधारा सरयू नदी कहलाई । जब भागीरथ अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए माता गंगा को पृथ्वी पर लाए थे तब गंगा और सरयू नदी का संगम हुआ था। सरयू नदी को बौद्ध ग्रंथों में सरभ के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार सरयू , घाघरा और शारदा नदियों का भी संगम हुआ है। 

वर्तमान में सरयू नदी का उदगम उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से हुआ है । बहराइच से निकल कर यह नदी गोंडा से होती हुई अयोध्या तक जाती है । पहले यह नदी गोंडा के परसपुर तहसील में पसका नामक तीर्थ स्थल पर घाघरा नदी से मिलती थी लेकिन जब यहाॅं  बाॅंध  बन गया तब सरयू नदी पसका से करीब आठ किलोमीटर आगे चंदापुर नामक स्थान पर मिलती है । अयोध्या तक यह नदी सरयू नदी के नाम से जानी जाती है लेकिन उसके बाद के क्षेत्रों में यह नदी घाघरा नदी के नाम से जानी जाती हैं । राम की पैड़ी सरयू नदी के ही किनारे है यहां घाट और बगीचों की श्रृंखला हैं । इस नदी पर विभिन्न धार्मिक अवसरों पर भक्तगण स्नान करते हैं ।

Wednesday, 17 March 2021

अवतारी कृष्ण का संघर्षमय जीवन

जब धार्मिक नायकों की बात आती है, तब मेरे मस्तिष्क में एक साथ कई रेखाएँ खींच जाती हैं। आड़ी-तिरछी, उल्टी-सीधी। उन रेखाओं से कई आकृतियाँ जन्म लेती हैं। कहीं सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखें, कहीं साँवला-सलोना मुख। अधर पर अक्षय मुस्कुराहट। कानों में कभी कुवलय-पुष्प तो कभी स्वर्ण-कुण्डल। श्याम-वर्ण शरीर। उस पर लौकिक पीतांबर। वन-मालाओं से सुशोभित कंठ। गुँजाओं से अंग-प्रत्यंग आभूषित। मोर पंख का मुकुट। ललाट पर घुँघराली अलकें। अधर पर चारु वेणु। यह रूप आयास ही नहीं उभरता। एक पूरा चित्र बनता है। बृज-बिहारी का चित्र। गोपाल-गिरिधारी का चित्र। मोहन-मुरारी का चित्र। कृष्ण का चित्र। तब मेरे समझ में आता है कि इतिहास और पौराणिक कथाओं को किताबों के चंद तहरीरों में बंद करके साक्ष्य बनाया जा सकता हैं, या मिटाया जा सकता हैं। लेकिन उन आस्थाओं का क्या प्रमाण हो सकता है, जो लोगों के रगों में लहू की तरह प्रवाहित होती हैं? आँखों में बिजली की तरह चमकती हैं। कृष्ण भी तो एक आस्था का ही नाम है। एक विश्वास का ही नाम है। भगवान श्रीकृष्ण का लीलामय जीवन अनके प्रेरणाओं व मार्गदर्शन से भरा हुआ है। उन्हें पूर्ण पुरुष लीला अवतार कहा गया है। उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में विस्तार से किया गया है। उनका चरित्र मानव को धर्म, प्रेम, करुणा, ज्ञान, त्याग, साहस व कर्तव्य के प्रति प्रेरित करता है। उनकी भक्ति मानव को जीवन की पूर्णता की ओर ले जाती है। भाद्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी को चारों ओर कृष्ण जन्म को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण भारतीय जीवन का आदर्श हैं। उनकी भक्ति मानव को उसके जीवन की पूर्णता की ओर ले जाती है। धरती पर धर्म की स्थापना के लिए ही द्वापर में भगवान विष्णु कृष्ण के रूप में मथुरा के राजा कंस के कारागार में माता देवकी के गर्भ से अवतरित हुए। उनका बाल्य जीवन गोकुल व वृंदावन में बीता। गोकुल की गलियों तथा यशोदा मैया की गोद में पले-बढ़ेे। कृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में ही अपने परम ब्रह्म होने की अनुभूति से यशोदा व बृजवासियों को परिचित करा दिया था। उन्होंने ऐसा जानबुझ कर नहीं किया था। वे तो परिस्थितियों की दासता के कारण चुनौतियों का सामना किए। उन्होंने पूतना, बकासुर, अघासुर, धेनुक और मयपुत्र व्योमासुर का वध कर बृज को भय मुक्त किया। इंद्र के अभिमान को दबाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा को स्थापित किया। कृष्ण साक्षात करुणा हैं। दया हैं। क्षमता हैं। मर्यादा है। सेवा-भाव हैं। संबंधों के पर्याय हैं। जीवंत विग्रह हैं। कृष्ण मर्यादा से मुक्त रहकर भी बंधनयुक्त हैं। अपने चरित्र के आकाश में कैद कृष्ण को कोई भी जीव भूल नहीं सकता। उन्हें याद करने के लिए इतिहास के पुस्तकों की आवश्यकता नहीं, पौराणिक ग्रंथों के परायण की आवश्यकता नहीं, विश्वास और आस्था की आवश्यकता पड़ती है। वे लोक रंजक हैं। लोक विचारों में जीवित रहते हैं। वे अहेरी भी हैं। आखेट करते हैं। वे बादल भी हैं। बरसते भी हैं। उनके बरसने में सृजन की शक्ति है। ऊर्वरा की शक्ति है। बंध्या धरती भी तृप्त हो जाती है। अंकुरण फूट पड़ता है। जीवन होता है। राधा उस बादल का जल हैं। कृष्ण जीवन की सत्यता को समझते हैं। समझते हैं तभी तो युद्धक्षेत्र में गीता द्वारा युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं। अपने वंशजों के विनाश पर भी दुखी नहीं होते। कृष्ण तोड़कर मुक्त होते हैं। कृष्ण का जन्म आधी रात को होता है। अमावस्या की काली रात में। मेघों से आच्छादित काली रात में। भार्द्रपद की काली रात में। बरसात भरी काली रात में। कृष्ण का जन्म कारागार में होता है। अपने मातुल के कैद में। जहाँ माँ-बाप को बेड़ी लगी है। कृष्ण ऐसे समय में आते हैं। भय और अत्याचार के समय में। दुख से आक्रांत समय में। अज्ञान से उद्वेलित समय में। ज्ञान का दीप बनकर। हर्ष की मरीचि बन कर। निर्भयता को चुनौती देकर। कृष्ण अपने नवजात रूप में ही यमुना को अपना स्पर्श कराते हैं। यशोदा मैया और नंद बाबा के यहाँ रहते हैं। एक राजकुमार का जीवन नहीं, सामान्य जीवन। खेल-खेल में काली नाग के दमन का जीवन। दही और माखन चुराने का जीवन। बंसी के मधुर तान से सबको मुग्ध कर देने वाला जीवन। अनेक असुरों का दमन करने वाला जीवन। गोपियों संग प्रेम क्रीड़ा करने वाला जीवन। रास रचाने वाला जीवन। और सबके बाद कर्म योग का जीवन। बाल्य अवस्था में कृष्ण ने न केवल दैत्यों का संहार किया बल्कि गौ-पालन की। उनकी रक्षा व उनके संवर्धन के लिए समाज को प्रेरित भी किया। उनके जीवन का उत्तरार्ध महाभारत के युद्ध व गीता के अमृत संदेश से भरा रहा। धर्म, सत्य व न्याय के पक्ष को स्थापित करने के लिए ही कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में पांडवों का साथ दिया। महाभारत के युद्ध में विचलित अपने सखा अर्जुन को श्रीकृष्ण ने वैराग्य से विरक्ति दिलाने के लिए ही गीता का संदेश दिया। उन्होंने अभिमानियों के घमंड को तोड़ा। अपने प्रति स्नेह व भक्ति करने वालों को सहारा भी दिया। वे राज्य शक्ति के मद में चूर कौरवों के स्वादिष्ट भोग का त्याग कर विदुर की पत्नी के हाथ से साग ग्रहण किए। द्वारका का राजा होने के बाद भी उन्होंने अपने बाल सखा दीन-हीन ब्राह्मण सुदामा के तीन मुट्ठी चावल को प्रेम से ग्रहण कर उनकी दरिद्रता दूर कर मित्र धर्म का पालन किया। कृष्ण संस्कार हैं। वे आत्मीय लगते हैं। कृष्ण चिरकालीक सत्य है। सोलह कला लिए पूर्ण पुरुष हैं कृष्ण। वे परंपराओं को चुनौती देते हैं। एक राजवंश की परंपरा को। सामंती परंपरा को। वैभवशाली परंपरा को। कृष्ण अवतार हैं। उन्हें पूर्ण प्रकाश में आना चाहिए। दिन में आना चाहिए। उन्हें क्यों डरना? पर वे काली आधी रात को कारागार में आते हैं। संतानोत्पति पर माताएँ संतान की देख भाल करती हैं। कृष्ण के पिता वसुदेव उनकी देखभाल करते हैं। आगे एक राजकुमार अपनी पौरी से दूर समुचे गाँव में खेलने जाता है। एक अवतरित आत्मा मिट्टी खाता है। घर-घर में तनक दही के काज चोरी करता है। फटकार सुनता है। माँ यशोदा द्वारा ओखल में बाँधा जाता है। कृष्ण अवतार लेते हैं लीला के लिए। उनकी लीला रूढि़यों को तोड़ने की लीला है। वे सामान्य ग्वाल-बालों के साथ वन-वन भटकते गाय चराते हैं। करील-कूँजों में खेलते हैं। गेंद यमुना में चले जाने पर अपने ईश्वरीय या सामंत होने का धौंस या शक्ति नहीं दिखाते। भले वह घटना लीला ही सही, वे स्वयं गेंद निकालने यमुना में जाते हैं। अवतारी कृष्ण का पूरा जीवन ही संघर्षमय रहा है। वे अपने जीवन से लोगों को संघर्ष की ही शक्ति देते हैं। अपने कर्म-धर्म से उन्होंने सब लोगों का विश्वास जीत लिया कि आज के समय में भी लोग उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के रूप में मानते और पूजते हैं। श्रीकृष्ण पूर्णतया निर्विकारी है। उनका स्वरूप चैतन्य है। श्रीकृष्ण ने तो द्रोपदी का चीर बढ़ाकर उसे अपमानित होने से बचाया था। गीता के माध्यम से अर्जुन को अनासक्त कर्म की प्रेरणा दी। इसका परिणाम उन्होंने अपने निजी जीवन में भी प्रस्तुत किया। मथुरा विजय के बाद में उन्होंने वहाँ राज्य नहीं किया। स्वयं एक अवतारी होने के बावजूद भी कृष्ण एक देवता के मान-मर्दन के लिए उन्हें चुनौती दे देते हैं। गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी दैवीय शक्ति से गोवर्धन को छत्र रूप में कनिष्ठिका पर उठा लेते हैं। कुल की इच्छा के विरूद्ध स्वयं सत्यभामा एवं रूक्मिणी के भगाने का काम करते हैं। प्रेम की पराकाष्ठा दिखाने के लिए राधा सहित अन्य गोपियों के साथ रास रचाते हैं। राधा अमर हो जाती हैं। राधा के प्रेम से वे स्वयं अमर हो जाते हैं। वे सामान्य जन की भाँति वेणु बजाते हैं। गोपिकाओं का वस्त्र हरण करते हैं। महाभारत जैसे युद्ध का उद्घोष कर महाविनाश के लिए अर्जुन को उत्साहित करते हैं। मोह पाश से मुक्त कराने के लिए पावन गीता का अमृत उपदेश देते हैं। सच ही, जीवन पर कृष्ण ने अपने अच्छे-अच्छे कर्मों से परंपराओं को चुनौती दिया है। नवीन आदर्श प्रस्तुत किया है। वे लोक नायक के रूप में भी हैं। प्रेम-पुजारी के रूप में भी हैं। तभी तो वे प्रखर शासक हैं। तभी तो वे रसिक-शिरोमणि हैं। कर्मण्यवाधिकारस्ते कहने वाले वे महान कर्मयोगी हैं। वे मन के लिए अभिराम हैं। नेत्र के लिए रमणीय हैं। वाणी के लिए मिष्ठान हैं। हृदय के लिए रंजक हैं। श्रवण के लिए संगीत हैं। कृष्ण कृपालु हैं। उनकी कृपा से मुनिगण देवत्व को प्राप्त होते हैं। परम पद प्राप्त करते हैं। कृष्ण रूप में, कृष्ण शब्द में, कृष्ण आस्था में, न जाने कौन-सी शक्ति है कि युगों-युगों से इतने प्रबल और प्रभावशील रूप से नास्तिकता की आँधियाँ चली। अधर्म का अंधकार छाया। परन्तु भारतीय संस्कृति को कोई भी हिला नहीं पाया। आज भी अधर्म करने वालों को सोचना चाहिए कि भारतीय आस्था अडिग है। अगर अधर्म ऐसे बढ़ता रहा तो पुनः कहीं से घ्वनि की टंकार सुनाई देगी। संभवामि युगे-युगे का घोष सुनाई देगा। पुनः प्रेम की वर्षा होगी। करूणा का कालीन बिछेगा। दया का दान किया जाएगा और तब पुनः भारत की विराटता का शंखनाद होगा।

Monday, 8 March 2021

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस "एक लेख - शायद एक सोच"

जब भी कोई दिवस मनाया जाता है, हम सभी में लेखक या किसी वक्ता की आत्मा समा जाती है जो हमें लिखने या बोलने के लिये प्रेरित करती है उस विशेष दिवस के उपलक्ष्य में|

हमारे समाज में दो तरह के लोग हैं, एक वो जो समीक्षक हैं और दूसरे वो जो प्रोत्साहित करते हैं सराहते हैं, मुझे पता है मेरे इस लेख पर भी दो तरह की राय होगी|

इस लेख को पहले भी लिखा जा सकता था या बाद में भी, पर आज लिखना ज्यादा जरुरी इस वजह से है कि इस उपयुक्त समय से ज्यादा संभावना इस बात की है की लोग इसे देखें , पढ़ें और शायद अपनी राय भी दें|

क्या केवल 8 मार्च ही वो दिन है जब हमें ज़्यादा उत्सुकता के साथ नारी सशक्तिकरण की बात करनी चाहिए? क्या सिर्फ आज ही के दिन हमें इनकी महत्ता समझ आनी चाहिए? क्या सिर्फ आज ही के दिन हमें उन पर गर्व होना चाहिए? क्या सिर्फ आज ही के दिन हमें समानता की बात करनी चाहिए? फिर भी एक बात अच्छी है कि कम से कम एक दिन तो है gentle reminder की तरह, एक दिन विचार करने के लिये और याद करने के लिये किसी ख़ास घटना को, किसी उत्सव को या किसी उपलब्धि के लिए|

किन्तु हम बात करें भारतीय संस्कृति की तो हमारा इतिहास हमें सिखाता है नारी का सम्मान करना और समानता का भाव रखना|बिना नारी हम इस समाजकी कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते| प्राचीन भारत ने हमेशा नारी शक्ति और साहस की प्रसंशा की है|

हमें अभी भी जरुरत है सोचने की, नारी सशक्तिकरण के विषय में| इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में समाज में कुछ सुधार हुए हैं नारी सशक्तिकरण के लिए, समाज के दृष्टिकोण में बदलाव आया है, हम आप में भी कुछ सुधार हुआ है लेकिंन अभी भी हम अपने आप को इतना बेहतर नहीं बना पाए हैं कि एक स्तंभ स्थापित कर सकें और दम्भ भर सकें, क्योंकि जब भी कोई सवाल या मुद्दा उठता है और हमारी परिपक्वता की परीक्षा की घड़ी आती है तो हम अपनी अपनी राय और तर्क- कुतर्क में व्यस्त हो जाते हैं|

भारत उन विरले देशों में से है जहाँ नारी को पूजा जाता है- देवी के रूप में| हमारे प्राचीन पथप्रदर्शक जानते थे नारी की महत्ता और महानता को|मुझे उम्मीद है कि आप लोग इस बात का आभास नहीं लगाएंगे कि मैं किसी धर्म विशेष की बात कर रहा हूँ, नारी सशक्तिकरण का किसी धर्म विशेष से कोई लेना देना नहीं है, ये उदाहरण अपनी बात को केवल सही तरीके से रखने के लिए है|

"सीता जी", श्री राम की पत्नी, प्रतीक हैं त्याग और साहस का, "रानी लक्ष्मी बाई", प्रतीक हैं साहस का, बुराई के खिलाफ लड़ने का और ऐसे अनेकों उदाहरण हैं आज के युग से भी पर अगर मैं सबके नाम लिखने लग जाऊं तो शायद ही इस लेख में जगह बचे कुछ लिखने के लिए, जिन्होंने राह दिखाई है और प्रतीक बनीं हैं समाज में सशक्तिकरण का|

अक्सर हम बात करते हैं कि सिर्फ नारी ही क्यों त्याग करे? पर हम जानते हैं कि दोनों ही त्याग करते हैं; एक सैनिक त्याग करता है अपनी खुशियों का, परिवार के साथ न होकर देश की सेवा के लिए, एक चिकित्सक त्याग करता है अपने उस बचे समय का, जो उसे परिवार को देना है मरीजों की सेवा और जान बचाने के लिए, एक साधारण व्यक्ति जो कुछ पैसे कमाने अपने घर से दूर किसी अन्य शहर या देश में रहता है उस एहसास और ख़ुशी से वंचित जो उसे मिलती अपने बच्चे को बड़ा होता देख | ये सारी बात एक नारी के साथ भी है, जब हम समानता की बात करते हैं तो हमें दोनों ही पहलुओं पर विचार करना है|

समय है कि हम लड़कियों की भी वैसी ही परवरिश करें जैसी हम लडक़ों की करते हैं, हम लड़कियों की शिक्षा पर खर्च करें न कि उस पूँजी को जमा करें उनकी शादी के लिए| हमें लड़कियों के भविष्य के लिए भी वही सोच रखनी होगी जो हम लड़कों के लिए रखते हैं| हम लड़कों की शादी के लिए कभी पूंजी जमा नहीं करते क्योंकि हमारी ऐसी सोच है कि लड़के को पढ़ा लिखा कर काबिल बना दें और कमाने लायक बना दें ताकि वे अपना भविष्य बना सकें, तो ऐसी सोच हम लड़कियों के लिए क्यों नहीं रख सकते? 

हमारी सोच ऐसी ही बनी हुई है बहुत वर्षों से, हम हमेशा असुरक्षित महसूस करते हैं लड़कियों के भविष्य के लेकर, उनके अपने पैरों पर खड़ा होने को लेकर, उनके रोजगार को लेकर, जीवन के निर्णय को लेकर, हम ये नहीं जानते कि वे क्या चाहती हैं अपने भविष्य से | हमारी ये असुरक्षा की भावना शुरु से उन्हें कमजोर बनाती चली जाती है, हम खुद उनके लिए ऐसा वातावरण ऐसा माहौल उनके लिये बना देते हैं जो समाज में लड़के और लड़िकयों की समानता में भिन्नता को जन्म देती है|

पर अगर हम तैयार हैं उस सोच को अपनाने के लिए, तो हम दहेज़ रुपी राक्षस को भी समाज से समाप्त कर सकते हैं बहुत जल्द तो नहीं पर पूरी तरह|

हम सभी को निर्णय लेना होगा भविष्य को बदलने के लिए, जो कि बेहतर हो सकता है, जैसा हम चाहते हैं उससे भी बेहतर| कोई भी दिवस एक gentle reminder है हमारी सोच को उम्दा बनाने का और जीवन को बेहतर और खुशियों से भरा बनाने का|

हम दिवाली, ईद, होली और क्रिसमस मनाते हैं, निःसंदेह इनके पीछे हमारी धार्मिक मान्यता और आस्था है, पर एक ऐसी वजह जो इन सारे त्योहारों में अवसरों में common है वो वजह है "ख़ुशी, उल्लास,जीवंतता", ये हमें एक दूसरे के करीब लाती है, किसी भी त्यौहार या दिवस पर हम हमारे मित्रों, जानने वालों के घर जाते हैं, उन्हें अपने घर आमन्त्रित करते हैं या एक जगह इकठ्ठा होते हैं, अपनी खुशियों को साझा करते हैं,उत्सव मानते हैं,एक दूसरे की ख़ुशी में शामिल होते हैं और कभी कभी तो अनजान लोगों के साथ भी खुशियां बांटते हैं, हम उस विशेष उपलक्ष्य पर बहुत विनम्र होते हैं, खुश होते हैं और मिलनसार होते हैं, बाकी जीवन के और दिनों कि अपेक्षा, चाहे वो दिवाली हो , ईद हो या क्रिसमस हो या अन्य कोई विशेष दिन| अगर 

हम वही व्यवहार और व्यक्तित्व जीवन के और दिनों में भी अपने अंदर ले आएं, उसी विनम्रता के साथ सकारात्मकता लाएं अपने नज़रिये में हर सोच के लिए, जो कि ज़रूरी है और सही भी, तो सिर्फ ८ मार्च ही नहीं होगा वो एक दिन समर्पित करने के लिए नारी के अस्तित्व को|क्योंकि अगर उसकाअस्तित्व नहीं है तो इस विश्व का भी कोई अस्तित्व नहीं|


मेरा सलाम है, समूचे नारी जगत को, एक माँ को, एक बहन को, एक बेटी को, एक संगिनी को

Happy international women's day

Sunday, 21 February 2021

"महाराणा प्रताप" अमर हिन्दू योद्धा

हूँ भूख मरूं‚ हूँ प्यास मरूं‚ मेवाड़ धरा आजाद रहै।
हूँ घोर उजाड़ां मैं भटकूँ‚ पण मन में माँ री याद रह्वै” 

क्या करें...?? ये मिट्टी ऐसी ही है...इसमें कई जगह अनाज की पैदावार भले ही कम होती होगी पर इस मिट्टी ने देश, सनातन धर्म के लिये, स्व अभिमान के लिये अंतिम क्षण तक लड़ने वाले शुर वीरों को जन्म देने में कभी कमी नहीं की...!!

★  वीर शिरोमणि.. एकलिंग महादेव के भक्त, महाराणा प्रताप 9 मई सन् 1540 को कुम्भलगढ़ किले में इस धरा पर अवतरित हुए थे...उनके  पास नाममात्र की पराधीनता स्वीकार करके शांति से शासन करने का विकल्प था मगर पराधीनता की शांति की तुलना में महाराणा ने स्वाभिमान की अशांति का विकल्प चुना..वह..
माँ भारती के तन पर स्वाभिमान का जेवर था
मरते दम तक नहीं झूका वो सूर्यवंश का तेवर था..!!

★ जिस समय महाराणा प्रताप सिंह ने मेवाड़ की गद्दी संभाली, उस समय राजपुताना साम्राज्य बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। बादशाह अकबर की क्रूरता के आगे राजपुताने के कई नरेशों ने अपने सर झुका लिए थे। कई वीर प्रतापी राज्यवंशों के उत्तराधिकारियों ने अपनी कुल मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। कुछ स्वाभिमानी राजघरानों के साथ ही महाराणा प्रताप भी अपने पूर्वजों की मर्यादा की रक्षा हेतु अटल थे और इसलिए तुर्क, जिहादी बादशाह अकबर की आंखों में वे सदैव खटका करते थे..!

★मेवाड़ को बचाने के लिए आखिरी सांस तक लड़ने वाले महाराणा प्रताप ने 6 बार ,अकबर को बादशाह मानकर मेवाड़ में राज चलाने की पेशकश ठुकराई. उन्हें किसी जिहादी का राज, उसकी गुलामी स्वीकार नहीं थी..!!

★ महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था. उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था, उन्होंने अपना सारा राज्य भगवान शिव के स्वरूप भगवान एकलिंग जी के चरणों में समर्पित कर रखा था और उनका दिवान बनकर ही राज किया....! मरुभूमि आज भी अपने गीतों में गाती है....पूछती है...? 

हल्दी घाटी में समर लड़यो,
वो चेतक रो असवार कठे..?

मायड़ थारो वो पुत कठे..?
वो एकलिंग दीवान कठे..?

वो मेवाड़ी सिरमौर कठे..?
वो महाराणा प्रताप कठे..?

★हल्दीघाटी का युद्ध मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था. यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था. महाराणा की तरह ही उनका प्रिय अश्व "चेतक" भी बहुत बहादुर था..वह भी हिंदुओं के इतिहास की अमूल्य निधि है.. जब मुगल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुगल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। हल्दी घाटी की मिट्टी को कान लगाकर सुनेंगे तो, चेतक के पदचाप आज भी सुनाई देते है.. !!

" कुरुछेत्र की रणभूमि में जो पाञ्चजन्य गुंजित होता था
वैसी ही ध्वनि होती थी जब हल्दी घाटी में चेतक हिनहिनाता था..
निल वर्णीय अश्व की आहट कायरता के कलंक धो जाती थी,जय मेवाड़ कहते ही राणा के भाले में भवानी प्रकट हो जाती थी..!!

★ हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20,000 सैनिक थे और अकबर के पास 80,000 सैनिक. इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और  संघर्ष करते रहे..हल्दीघाटी के युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे...!!

★ हिन्दू धर्म तथा देशहित के लिए महाराणा प्रताप जंगलों में रहे..माँ भारती के बेटे को,उनके परिवार को घास की रोटियां तक खानी पड़ी.. लेकिन वे सभी चट्टान की भांति दुश्मन के सामने अडे रहे..हर बार जीते हुए इलाकों में मुगलिया चौकी बना दी जातीं और सेना के लौट जाने के बाद पहाड़ों में छिपे हुए प्रताप और उनकी सेना बाहर आकर उन्हें ध्वस्त कर देती. महाराणा ने बहुत कम समय में अपना खोया हुआ राज्य काफी हद तक पा लिया था.. यही समय था जब मेवाढ के लिए स्वर्णिम युग कहा गया। दुर्भाग्य से 19 जनवरी 1597 को नई राजधानी चामढ में महाराणा प्रताप माँ भारती के आँचल को छोड़कर यहाँ से विदा हो गये...!!

गिरा जहाँ पर रक्त वीर का, वहाँ का पत्थर पत्थर जिंदा है
देह की सीमाएँ है पर नाम का अक्षर अक्षर अब भी जिंदा है
जीवन में यह अमर कहानी अक्षर अक्षर गढ़ लेना..!!
शौर्य कभी सो जाये तो महाराणा प्रताप को पढ़ लेना..

इन्हीं शब्दों के साथ... हे धन्य धरा के हिन्दू वीर... हे परम आदरणीय पूर्वज महाराणा प्रताप.. आपके पूज्य चरणों में हम सभी हिन्दू जनों का साष्टांग नमन, वंदन, प्रणाम...

Friday, 1 January 2021

कुछ वादे स्वयं से नववर्ष के लिए

नया साल दस्तक देने को है ।
छोटे कदमों से बेहतरी की ओर बढे।
बदलाव की ओर बढ़े ।
छोटी-छोटी खुशियों को जीना सीखें।
नया साल दस्तक देने को है।आपने भी कई संकल्प लिये होंगे या फिर उन पर विचार कर रहे होंगे।

लेकिन भारी भरकम वादों और इरादों के फेर में छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज ना करें।

आज छोटी छोटी और सरल शुरुआत करें ।जो इस वर्ष आदत बन जाए तो जिंदगी बेहतर मोर्चे पर आगे बढ़ेगी।

1- बीते कुछ महीनों में करोना की आपदा के चलते  जिंदगी ने हमें फिर समझाया है कि- छोटी-छोटी खुशियों को जीना कितना जरूरी है।
सेहत सहेजना हो या सकून से अपनी झोली भरना हो ऐसे छोटे छोटे कदम ही बेहतरीन बदलावों की ओर ले जाते हैं।

2 - खुलकर हंसे। जरा ठहरो तो सही,बताओ हंसी कहां गुम हो गई है।इस साल यह तय करने की चेहरे की सुंदरता और खुशियों के इजहार कि इस साथी को फिर जिंदगी में जोड़ेंगे।

जी भर से मुस्कुराएंगे जिंदगी की सबसे खूबसूरत नेमत को घर हो या बाहर अपनी पार्टी का हिस्सा बनाएंगे।
हंसी खुशी हर हालत में का सामना करेंगे। तकलीफ भरे समय में भी हंसने का बहाना तलाश लेगे।
खुद भी मुस्कुराहटों का स्वागत करेंगे और दूसरों को भी इस जिंदादिली से जोड़ेंगे।

3 -विनम्र व्यवहार आचार को आपनाएगे -विनम्रता अपको अपने पराए दोनों जगह  के दिलो में जगह दिला सकती है।
विनम्र रहे यह विनम्रता आपको घर में नहीं ऑफिस में भी सबका चहेता बना सकता है।

दिखावे से भरी इस दुनिया में विनम्रता और सादगी भरा व्यवहार आप की शख्सियत का बड़ा हिस्सा बन सकता है और खासियत भी।

4 - जिंदगी का हर पल कीमती है।
तो तय करें कि भविष्य की चिंता छोड़ देंगे।

5 - किसी के मन की सुने- हम अपनी ही नहीं सुने किसी के मन की भी सुने।
संवाद की कमी रिश्तो में दूरी ही नहीं ला रही बल्कि सोशल नेट वर्क को भी बदल रही है।
अब के बरस तय करें कि जब भी जहां भी आपसे कोई कुछ कहना चाहे, आप उसकी मन की बात जरूर सुने।

6 - इस साल गैजेट्स के माया जाल से थोड़ा सा बाहर आये। स्मार्टफोन या सोशल मीडिया खुद से छूट जाने के लिए नहीं है तय करे कि  दिन भर में स्क्रीन क्रॉल करते रहने के बजाय नियमित समय में सोशल मीडिया के प्लेटफार्म  को देगे।

7 - सेहत से स्वास्थ्य की प्राथमिकताओं को ले कर  बेहतर कदम उठा सकते हैं ।
नियमित व्यायाम करें खानपान और मेडिकल प्राथमिकता  को महत्व दे। 
यह सात वादे अपने आप से करें 
चलिये अब नए वर्ष में प्रवेश करते हैं----

नए साल की शुभकामनाएं!

नए साल की शुभकामनाएं! खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को, कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को, नए साल की शुभकामनाएं! जाँते के गीतों को, बैलों...