उतर सकता था लहरों के साथ,
रक्षा की रस्सी कफ़न हो गयी।
पंखों पे लग गये पहरे सफ़र में,
उड़ने की आशा दफ़न हो गयी।
यही नाव मन था आशा हिलोरें
बाँधा जो मन को लहर खो गये
रेतों औ कंकड़ पे जड़ हो पड़ा
जाना जिधर था शहर खो गये
किसको सुनायेंगे ये दास्ताँ कि
अपने ही ज़िद में पड़े रह गये।
समय ले गया ज़िंदगानी चुराकर
रेत के नाव सा हम खड़े रह गये।
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