हर गणतंत्र दिवस पर बचपन का एक किस्सा याद आता है. मेरी उम्र लगभग 5 या 6 साल की थी. पहली क्लास में एडमिशन हुए कुछ ही दिन हुए थे और साफ साफ बोलना बस सीखा ही था. गणतंत्र दिवस के अवसर पर सरस्वती शिशु शिक्षा मंदिर में एक कार्यक्रम चल रहा था जिसमें बच्चे जाकर कुछ कुछ सुना रहे थे और उन्हे इनाम मिल रहा था. मैं ये सब देख रहा था. मां ने मुझे कहा कि मैं भी वहां जाऊँ और जाकर कुछ सुनाऊँ. मैं ने पहले तो आनाकानी की लेकिन फिर इनाम के लालच में जाने के लिए तैयार हो गया. माँ ने मुझे उस दिन मेरी ज़िन्दगी की पहली कविता सिखाई. मैं वहां पहुंच गया. प्रबंधक मेरे पड़ोसी ही थे. कुछ देर में मेरा नंबर आ गया और मैं मंच पर था. सामने ढेरों लोग बैठे हुए थे. मैंने अपने हाथों पर कविता लिखी हुई थी, लेकिन हाथों को देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी. कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन फिर मुझे इनाम का ख्याल आया और मैंने कविता शुरू की.
"माँ मुझको बंदूक दिल दो,
मैं भी लड़ने जाऊंगा,
सरहद पर बन कर फौज़ी दुश्मन को मार भगाउँगा"
इतना कहने के बाद तालियों की गड़गड़ाहट से सारा मैदान गूंज गया और मैं वहां सन्न सा खड़ा रह गया. आगे कविता और बाकी थी लेकिन मेरी आँखे डबडबाई और कुछ मैं नहीं कह पाया. उस दिन इनाम में पेंसिल मिली.
उस दिन को याद करके आज भी मन रोमांच से भर जाता है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं. शब्द आज बदल गए हैं लेकिन जज्बा वही है.
"माँ मुझको तू कलम दिला दे,
देश में शांति लाऊंगा,
सरहद पर खड़े वीरों की,
जयचंदो से जान बचाउँगा"
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