Wednesday, 17 March 2021

अवतारी कृष्ण का संघर्षमय जीवन

जब धार्मिक नायकों की बात आती है, तब मेरे मस्तिष्क में एक साथ कई रेखाएँ खींच जाती हैं। आड़ी-तिरछी, उल्टी-सीधी। उन रेखाओं से कई आकृतियाँ जन्म लेती हैं। कहीं सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखें, कहीं साँवला-सलोना मुख। अधर पर अक्षय मुस्कुराहट। कानों में कभी कुवलय-पुष्प तो कभी स्वर्ण-कुण्डल। श्याम-वर्ण शरीर। उस पर लौकिक पीतांबर। वन-मालाओं से सुशोभित कंठ। गुँजाओं से अंग-प्रत्यंग आभूषित। मोर पंख का मुकुट। ललाट पर घुँघराली अलकें। अधर पर चारु वेणु। यह रूप आयास ही नहीं उभरता। एक पूरा चित्र बनता है। बृज-बिहारी का चित्र। गोपाल-गिरिधारी का चित्र। मोहन-मुरारी का चित्र। कृष्ण का चित्र। तब मेरे समझ में आता है कि इतिहास और पौराणिक कथाओं को किताबों के चंद तहरीरों में बंद करके साक्ष्य बनाया जा सकता हैं, या मिटाया जा सकता हैं। लेकिन उन आस्थाओं का क्या प्रमाण हो सकता है, जो लोगों के रगों में लहू की तरह प्रवाहित होती हैं? आँखों में बिजली की तरह चमकती हैं। कृष्ण भी तो एक आस्था का ही नाम है। एक विश्वास का ही नाम है। भगवान श्रीकृष्ण का लीलामय जीवन अनके प्रेरणाओं व मार्गदर्शन से भरा हुआ है। उन्हें पूर्ण पुरुष लीला अवतार कहा गया है। उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में विस्तार से किया गया है। उनका चरित्र मानव को धर्म, प्रेम, करुणा, ज्ञान, त्याग, साहस व कर्तव्य के प्रति प्रेरित करता है। उनकी भक्ति मानव को जीवन की पूर्णता की ओर ले जाती है। भाद्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी को चारों ओर कृष्ण जन्म को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण भारतीय जीवन का आदर्श हैं। उनकी भक्ति मानव को उसके जीवन की पूर्णता की ओर ले जाती है। धरती पर धर्म की स्थापना के लिए ही द्वापर में भगवान विष्णु कृष्ण के रूप में मथुरा के राजा कंस के कारागार में माता देवकी के गर्भ से अवतरित हुए। उनका बाल्य जीवन गोकुल व वृंदावन में बीता। गोकुल की गलियों तथा यशोदा मैया की गोद में पले-बढ़ेे। कृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में ही अपने परम ब्रह्म होने की अनुभूति से यशोदा व बृजवासियों को परिचित करा दिया था। उन्होंने ऐसा जानबुझ कर नहीं किया था। वे तो परिस्थितियों की दासता के कारण चुनौतियों का सामना किए। उन्होंने पूतना, बकासुर, अघासुर, धेनुक और मयपुत्र व्योमासुर का वध कर बृज को भय मुक्त किया। इंद्र के अभिमान को दबाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा को स्थापित किया। कृष्ण साक्षात करुणा हैं। दया हैं। क्षमता हैं। मर्यादा है। सेवा-भाव हैं। संबंधों के पर्याय हैं। जीवंत विग्रह हैं। कृष्ण मर्यादा से मुक्त रहकर भी बंधनयुक्त हैं। अपने चरित्र के आकाश में कैद कृष्ण को कोई भी जीव भूल नहीं सकता। उन्हें याद करने के लिए इतिहास के पुस्तकों की आवश्यकता नहीं, पौराणिक ग्रंथों के परायण की आवश्यकता नहीं, विश्वास और आस्था की आवश्यकता पड़ती है। वे लोक रंजक हैं। लोक विचारों में जीवित रहते हैं। वे अहेरी भी हैं। आखेट करते हैं। वे बादल भी हैं। बरसते भी हैं। उनके बरसने में सृजन की शक्ति है। ऊर्वरा की शक्ति है। बंध्या धरती भी तृप्त हो जाती है। अंकुरण फूट पड़ता है। जीवन होता है। राधा उस बादल का जल हैं। कृष्ण जीवन की सत्यता को समझते हैं। समझते हैं तभी तो युद्धक्षेत्र में गीता द्वारा युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं। अपने वंशजों के विनाश पर भी दुखी नहीं होते। कृष्ण तोड़कर मुक्त होते हैं। कृष्ण का जन्म आधी रात को होता है। अमावस्या की काली रात में। मेघों से आच्छादित काली रात में। भार्द्रपद की काली रात में। बरसात भरी काली रात में। कृष्ण का जन्म कारागार में होता है। अपने मातुल के कैद में। जहाँ माँ-बाप को बेड़ी लगी है। कृष्ण ऐसे समय में आते हैं। भय और अत्याचार के समय में। दुख से आक्रांत समय में। अज्ञान से उद्वेलित समय में। ज्ञान का दीप बनकर। हर्ष की मरीचि बन कर। निर्भयता को चुनौती देकर। कृष्ण अपने नवजात रूप में ही यमुना को अपना स्पर्श कराते हैं। यशोदा मैया और नंद बाबा के यहाँ रहते हैं। एक राजकुमार का जीवन नहीं, सामान्य जीवन। खेल-खेल में काली नाग के दमन का जीवन। दही और माखन चुराने का जीवन। बंसी के मधुर तान से सबको मुग्ध कर देने वाला जीवन। अनेक असुरों का दमन करने वाला जीवन। गोपियों संग प्रेम क्रीड़ा करने वाला जीवन। रास रचाने वाला जीवन। और सबके बाद कर्म योग का जीवन। बाल्य अवस्था में कृष्ण ने न केवल दैत्यों का संहार किया बल्कि गौ-पालन की। उनकी रक्षा व उनके संवर्धन के लिए समाज को प्रेरित भी किया। उनके जीवन का उत्तरार्ध महाभारत के युद्ध व गीता के अमृत संदेश से भरा रहा। धर्म, सत्य व न्याय के पक्ष को स्थापित करने के लिए ही कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में पांडवों का साथ दिया। महाभारत के युद्ध में विचलित अपने सखा अर्जुन को श्रीकृष्ण ने वैराग्य से विरक्ति दिलाने के लिए ही गीता का संदेश दिया। उन्होंने अभिमानियों के घमंड को तोड़ा। अपने प्रति स्नेह व भक्ति करने वालों को सहारा भी दिया। वे राज्य शक्ति के मद में चूर कौरवों के स्वादिष्ट भोग का त्याग कर विदुर की पत्नी के हाथ से साग ग्रहण किए। द्वारका का राजा होने के बाद भी उन्होंने अपने बाल सखा दीन-हीन ब्राह्मण सुदामा के तीन मुट्ठी चावल को प्रेम से ग्रहण कर उनकी दरिद्रता दूर कर मित्र धर्म का पालन किया। कृष्ण संस्कार हैं। वे आत्मीय लगते हैं। कृष्ण चिरकालीक सत्य है। सोलह कला लिए पूर्ण पुरुष हैं कृष्ण। वे परंपराओं को चुनौती देते हैं। एक राजवंश की परंपरा को। सामंती परंपरा को। वैभवशाली परंपरा को। कृष्ण अवतार हैं। उन्हें पूर्ण प्रकाश में आना चाहिए। दिन में आना चाहिए। उन्हें क्यों डरना? पर वे काली आधी रात को कारागार में आते हैं। संतानोत्पति पर माताएँ संतान की देख भाल करती हैं। कृष्ण के पिता वसुदेव उनकी देखभाल करते हैं। आगे एक राजकुमार अपनी पौरी से दूर समुचे गाँव में खेलने जाता है। एक अवतरित आत्मा मिट्टी खाता है। घर-घर में तनक दही के काज चोरी करता है। फटकार सुनता है। माँ यशोदा द्वारा ओखल में बाँधा जाता है। कृष्ण अवतार लेते हैं लीला के लिए। उनकी लीला रूढि़यों को तोड़ने की लीला है। वे सामान्य ग्वाल-बालों के साथ वन-वन भटकते गाय चराते हैं। करील-कूँजों में खेलते हैं। गेंद यमुना में चले जाने पर अपने ईश्वरीय या सामंत होने का धौंस या शक्ति नहीं दिखाते। भले वह घटना लीला ही सही, वे स्वयं गेंद निकालने यमुना में जाते हैं। अवतारी कृष्ण का पूरा जीवन ही संघर्षमय रहा है। वे अपने जीवन से लोगों को संघर्ष की ही शक्ति देते हैं। अपने कर्म-धर्म से उन्होंने सब लोगों का विश्वास जीत लिया कि आज के समय में भी लोग उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के रूप में मानते और पूजते हैं। श्रीकृष्ण पूर्णतया निर्विकारी है। उनका स्वरूप चैतन्य है। श्रीकृष्ण ने तो द्रोपदी का चीर बढ़ाकर उसे अपमानित होने से बचाया था। गीता के माध्यम से अर्जुन को अनासक्त कर्म की प्रेरणा दी। इसका परिणाम उन्होंने अपने निजी जीवन में भी प्रस्तुत किया। मथुरा विजय के बाद में उन्होंने वहाँ राज्य नहीं किया। स्वयं एक अवतारी होने के बावजूद भी कृष्ण एक देवता के मान-मर्दन के लिए उन्हें चुनौती दे देते हैं। गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी दैवीय शक्ति से गोवर्धन को छत्र रूप में कनिष्ठिका पर उठा लेते हैं। कुल की इच्छा के विरूद्ध स्वयं सत्यभामा एवं रूक्मिणी के भगाने का काम करते हैं। प्रेम की पराकाष्ठा दिखाने के लिए राधा सहित अन्य गोपियों के साथ रास रचाते हैं। राधा अमर हो जाती हैं। राधा के प्रेम से वे स्वयं अमर हो जाते हैं। वे सामान्य जन की भाँति वेणु बजाते हैं। गोपिकाओं का वस्त्र हरण करते हैं। महाभारत जैसे युद्ध का उद्घोष कर महाविनाश के लिए अर्जुन को उत्साहित करते हैं। मोह पाश से मुक्त कराने के लिए पावन गीता का अमृत उपदेश देते हैं। सच ही, जीवन पर कृष्ण ने अपने अच्छे-अच्छे कर्मों से परंपराओं को चुनौती दिया है। नवीन आदर्श प्रस्तुत किया है। वे लोक नायक के रूप में भी हैं। प्रेम-पुजारी के रूप में भी हैं। तभी तो वे प्रखर शासक हैं। तभी तो वे रसिक-शिरोमणि हैं। कर्मण्यवाधिकारस्ते कहने वाले वे महान कर्मयोगी हैं। वे मन के लिए अभिराम हैं। नेत्र के लिए रमणीय हैं। वाणी के लिए मिष्ठान हैं। हृदय के लिए रंजक हैं। श्रवण के लिए संगीत हैं। कृष्ण कृपालु हैं। उनकी कृपा से मुनिगण देवत्व को प्राप्त होते हैं। परम पद प्राप्त करते हैं। कृष्ण रूप में, कृष्ण शब्द में, कृष्ण आस्था में, न जाने कौन-सी शक्ति है कि युगों-युगों से इतने प्रबल और प्रभावशील रूप से नास्तिकता की आँधियाँ चली। अधर्म का अंधकार छाया। परन्तु भारतीय संस्कृति को कोई भी हिला नहीं पाया। आज भी अधर्म करने वालों को सोचना चाहिए कि भारतीय आस्था अडिग है। अगर अधर्म ऐसे बढ़ता रहा तो पुनः कहीं से घ्वनि की टंकार सुनाई देगी। संभवामि युगे-युगे का घोष सुनाई देगा। पुनः प्रेम की वर्षा होगी। करूणा का कालीन बिछेगा। दया का दान किया जाएगा और तब पुनः भारत की विराटता का शंखनाद होगा।

Monday, 8 March 2021

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस "एक लेख - शायद एक सोच"

जब भी कोई दिवस मनाया जाता है, हम सभी में लेखक या किसी वक्ता की आत्मा समा जाती है जो हमें लिखने या बोलने के लिये प्रेरित करती है उस विशेष दिवस के उपलक्ष्य में|

हमारे समाज में दो तरह के लोग हैं, एक वो जो समीक्षक हैं और दूसरे वो जो प्रोत्साहित करते हैं सराहते हैं, मुझे पता है मेरे इस लेख पर भी दो तरह की राय होगी|

इस लेख को पहले भी लिखा जा सकता था या बाद में भी, पर आज लिखना ज्यादा जरुरी इस वजह से है कि इस उपयुक्त समय से ज्यादा संभावना इस बात की है की लोग इसे देखें , पढ़ें और शायद अपनी राय भी दें|

क्या केवल 8 मार्च ही वो दिन है जब हमें ज़्यादा उत्सुकता के साथ नारी सशक्तिकरण की बात करनी चाहिए? क्या सिर्फ आज ही के दिन हमें इनकी महत्ता समझ आनी चाहिए? क्या सिर्फ आज ही के दिन हमें उन पर गर्व होना चाहिए? क्या सिर्फ आज ही के दिन हमें समानता की बात करनी चाहिए? फिर भी एक बात अच्छी है कि कम से कम एक दिन तो है gentle reminder की तरह, एक दिन विचार करने के लिये और याद करने के लिये किसी ख़ास घटना को, किसी उत्सव को या किसी उपलब्धि के लिए|

किन्तु हम बात करें भारतीय संस्कृति की तो हमारा इतिहास हमें सिखाता है नारी का सम्मान करना और समानता का भाव रखना|बिना नारी हम इस समाजकी कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते| प्राचीन भारत ने हमेशा नारी शक्ति और साहस की प्रसंशा की है|

हमें अभी भी जरुरत है सोचने की, नारी सशक्तिकरण के विषय में| इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में समाज में कुछ सुधार हुए हैं नारी सशक्तिकरण के लिए, समाज के दृष्टिकोण में बदलाव आया है, हम आप में भी कुछ सुधार हुआ है लेकिंन अभी भी हम अपने आप को इतना बेहतर नहीं बना पाए हैं कि एक स्तंभ स्थापित कर सकें और दम्भ भर सकें, क्योंकि जब भी कोई सवाल या मुद्दा उठता है और हमारी परिपक्वता की परीक्षा की घड़ी आती है तो हम अपनी अपनी राय और तर्क- कुतर्क में व्यस्त हो जाते हैं|

भारत उन विरले देशों में से है जहाँ नारी को पूजा जाता है- देवी के रूप में| हमारे प्राचीन पथप्रदर्शक जानते थे नारी की महत्ता और महानता को|मुझे उम्मीद है कि आप लोग इस बात का आभास नहीं लगाएंगे कि मैं किसी धर्म विशेष की बात कर रहा हूँ, नारी सशक्तिकरण का किसी धर्म विशेष से कोई लेना देना नहीं है, ये उदाहरण अपनी बात को केवल सही तरीके से रखने के लिए है|

"सीता जी", श्री राम की पत्नी, प्रतीक हैं त्याग और साहस का, "रानी लक्ष्मी बाई", प्रतीक हैं साहस का, बुराई के खिलाफ लड़ने का और ऐसे अनेकों उदाहरण हैं आज के युग से भी पर अगर मैं सबके नाम लिखने लग जाऊं तो शायद ही इस लेख में जगह बचे कुछ लिखने के लिए, जिन्होंने राह दिखाई है और प्रतीक बनीं हैं समाज में सशक्तिकरण का|

अक्सर हम बात करते हैं कि सिर्फ नारी ही क्यों त्याग करे? पर हम जानते हैं कि दोनों ही त्याग करते हैं; एक सैनिक त्याग करता है अपनी खुशियों का, परिवार के साथ न होकर देश की सेवा के लिए, एक चिकित्सक त्याग करता है अपने उस बचे समय का, जो उसे परिवार को देना है मरीजों की सेवा और जान बचाने के लिए, एक साधारण व्यक्ति जो कुछ पैसे कमाने अपने घर से दूर किसी अन्य शहर या देश में रहता है उस एहसास और ख़ुशी से वंचित जो उसे मिलती अपने बच्चे को बड़ा होता देख | ये सारी बात एक नारी के साथ भी है, जब हम समानता की बात करते हैं तो हमें दोनों ही पहलुओं पर विचार करना है|

समय है कि हम लड़कियों की भी वैसी ही परवरिश करें जैसी हम लडक़ों की करते हैं, हम लड़कियों की शिक्षा पर खर्च करें न कि उस पूँजी को जमा करें उनकी शादी के लिए| हमें लड़कियों के भविष्य के लिए भी वही सोच रखनी होगी जो हम लड़कों के लिए रखते हैं| हम लड़कों की शादी के लिए कभी पूंजी जमा नहीं करते क्योंकि हमारी ऐसी सोच है कि लड़के को पढ़ा लिखा कर काबिल बना दें और कमाने लायक बना दें ताकि वे अपना भविष्य बना सकें, तो ऐसी सोच हम लड़कियों के लिए क्यों नहीं रख सकते? 

हमारी सोच ऐसी ही बनी हुई है बहुत वर्षों से, हम हमेशा असुरक्षित महसूस करते हैं लड़कियों के भविष्य के लेकर, उनके अपने पैरों पर खड़ा होने को लेकर, उनके रोजगार को लेकर, जीवन के निर्णय को लेकर, हम ये नहीं जानते कि वे क्या चाहती हैं अपने भविष्य से | हमारी ये असुरक्षा की भावना शुरु से उन्हें कमजोर बनाती चली जाती है, हम खुद उनके लिए ऐसा वातावरण ऐसा माहौल उनके लिये बना देते हैं जो समाज में लड़के और लड़िकयों की समानता में भिन्नता को जन्म देती है|

पर अगर हम तैयार हैं उस सोच को अपनाने के लिए, तो हम दहेज़ रुपी राक्षस को भी समाज से समाप्त कर सकते हैं बहुत जल्द तो नहीं पर पूरी तरह|

हम सभी को निर्णय लेना होगा भविष्य को बदलने के लिए, जो कि बेहतर हो सकता है, जैसा हम चाहते हैं उससे भी बेहतर| कोई भी दिवस एक gentle reminder है हमारी सोच को उम्दा बनाने का और जीवन को बेहतर और खुशियों से भरा बनाने का|

हम दिवाली, ईद, होली और क्रिसमस मनाते हैं, निःसंदेह इनके पीछे हमारी धार्मिक मान्यता और आस्था है, पर एक ऐसी वजह जो इन सारे त्योहारों में अवसरों में common है वो वजह है "ख़ुशी, उल्लास,जीवंतता", ये हमें एक दूसरे के करीब लाती है, किसी भी त्यौहार या दिवस पर हम हमारे मित्रों, जानने वालों के घर जाते हैं, उन्हें अपने घर आमन्त्रित करते हैं या एक जगह इकठ्ठा होते हैं, अपनी खुशियों को साझा करते हैं,उत्सव मानते हैं,एक दूसरे की ख़ुशी में शामिल होते हैं और कभी कभी तो अनजान लोगों के साथ भी खुशियां बांटते हैं, हम उस विशेष उपलक्ष्य पर बहुत विनम्र होते हैं, खुश होते हैं और मिलनसार होते हैं, बाकी जीवन के और दिनों कि अपेक्षा, चाहे वो दिवाली हो , ईद हो या क्रिसमस हो या अन्य कोई विशेष दिन| अगर 

हम वही व्यवहार और व्यक्तित्व जीवन के और दिनों में भी अपने अंदर ले आएं, उसी विनम्रता के साथ सकारात्मकता लाएं अपने नज़रिये में हर सोच के लिए, जो कि ज़रूरी है और सही भी, तो सिर्फ ८ मार्च ही नहीं होगा वो एक दिन समर्पित करने के लिए नारी के अस्तित्व को|क्योंकि अगर उसकाअस्तित्व नहीं है तो इस विश्व का भी कोई अस्तित्व नहीं|


मेरा सलाम है, समूचे नारी जगत को, एक माँ को, एक बहन को, एक बेटी को, एक संगिनी को

Happy international women's day

नए साल की शुभकामनाएं!

नए साल की शुभकामनाएं! खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को, कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को, नए साल की शुभकामनाएं! जाँते के गीतों को, बैलों...