हमारे देश के संविधान को बने हुए ६७ साल हो चुके है जो सभी देशवासियों को हर प्रकार की स्वतंत्रता देने का वचन तो देता है लेकिन स्त्रियों के मामले में ये संविधान केवल एक पुस्तक मात्र बन कर रह गया है। यूँ तो इसमें स्त्रियों को हर प्रकार की स्वतंत्रता पुरुषों के बराबर दी गयी है परन्तु वास्तविकता क्या है इससे सभी अवगत है।
यहाँ स्त्रियाँ सिर्फ वैवाहिक जीवन का सुख भोगने का एक साधन मात्र बन कर रह गयी है। उनका बस एक ही कर्त्तव्य निर्धारित किया गया है - जीवन पर्यन्त पति और उसके परिवारजनों की सेवा सुशुश्रा करना। जन्म से ही उन्हें स्वयं निर्णय लेने के योग्य समझा ही नहीं जाता। उनका हर निर्णय उनके माता-पिता व भाई-बन्धु ही लेते आये है और बड़े होने के बाद अगर वो किसी मुद्दे पर अपने विचार भी प्रकट करना चाहे भले ही वो मुद्दा उनके खुद के जीवन से सम्बंधित ही क्यों न हो तो भी तुममें अभी समझ नहीं है या तुमने हमसे ज्यादा दुनियां नहीं देखी है इत्यादि कह कर टाल दिया जाता है। जैसे कि उनके विचारों, उनकी इच्छाओं, उनकी सहमती की कोई महत्ता ही न हो। वे यह भी समझने की कोशिश नहीं करते कि उनकी यह ज्यादती एक दिन उस स्त्री को ऐसा बना देगी की वह भविष्य में फिर कभी अपने पैरों पर नहीं खड़ी हो पायेगी, या तो वह अपनी इच्छा शक्ति को हमेशा के लिए खो देगी या फिर वो कोई ऐसा कदम उठा सकती है जिसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।
न जाने कब तक ये पुरुष प्रधान देश नारी को अबला होने पर मजबूर करता रहेगा। शायद उसे भी इस बात का भय है कि अगर नारी को स्वतंत्र होने का अवसर मिल गया तो पुरुष फिर किस पर शासन करेगा। कौन होगा जो उसकी बातों को बिना कोई तर्क किये हुए जस का तस स्वीकार कर लेगा।
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